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प्रतिज्ञा और उसका पालन
हास लिखने की प्रथा नहीं होने से जुदी जदी याददास्ती में जुदा जुदा हाल लिखा है x x x
ऐ. नो. पृष्ठ ८७ इस प्रकार श्रीमान् शाह, प्रभु की साक्षी पूर्वक उपरोक्त लेख लिखते हैं इससे इनकी लिखी बातों में किसी प्रकार की असत्यता एवं शंका को स्थान तक नहीं मिलता है पर शाह को यदि पूछा जाय कि जब आप लौकाशाह के विषय में कुछ भी नहीं जानते हैं कि यह कब जन्मे ? कब मरे ? तथा कैसे इनका घर संसार चलता था ? कहाँ २ इन्होंने भ्रमण किया, कौन शास्त्र इनको प्राप्त थे इत्यादि तो फिर आपने अपनी ऐति० नोंध में लौकाशाह को बड़ा भारी साहूकार, धनाढ्य, राजकर्मचारी, विद्वान्, शास्त्र मर्मज्ञ और एक ही वर्ष में अपने नव निर्मित मत को भारत के पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक फैलाने में लाखों चैत्यवासियों को दया धर्मी बनाने वाला किस आधार से लिखा है ? क्योंकि उपर्युक्तभवत प्रमाण से न तो झूठ ही लिख सकते हैं और न लौकाशाह विषयक आपके पास कुछ प्रमाण ही हैं तथा यह भी संभव नहीं कि आप अपने अतिशय ज्ञान पूर्वक ये सब बातें लिख देते ? फिर समझ में नहीं आता है कि ये बातें आपको कैसे मालूम हुई । क्या लौकाशाह स्वयं तो जन्म ले के आपके अंदर नहीं आ घुसे हों कि जिन्होंने अपना सारा का सारा किस्सा अतिशयोक्ति पूर्वक व्योरेवार आपसे लिखवा दिया ? यदि आपने लौंकाशाह का जीवन कल्पित उपन्यास लिखा है तो प्रभुकी साक्षी से की हुई श्रापको प्रतिज्ञा का पालन क्यों कर हुश्रा, और सच्चा लिखा है तो पूर्व में प्रमाणों के अभाव का रोना क्या
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