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ऐ० मों० की ऐतिहासिकता
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सो सीमा को उलाँघ गया है अतः उन्हें वन्दना के आशीर्वाद रूप में दिया जानेवाला धर्मलाभ शब्दभी खटक रहाडे किन्तु यह शाह की मिथ्या भ्रान्ति है । शाह को पहिले यह तो विचारना था कि जब शाह के धर्माचार्य पहिले "हाँजी" और अब "दयापालो " कहते हैं यह किस आधार से कहते हैं ।
वास्तव में धर्मलाभ आशीर्वादाऽऽत्मक है. जब दया उपदेश है । जब भक्तजन श्रा के साधुको नमस्कार करते हैं तब साधु द्वारा उन्हें उपदेश के स्थान में आशीर्वाद देना ही युक्तियुक्त एवं न्याय सङ्गत है अतः वन्दनाऽनन्तर जैन श्रावक के पति "धर्मलाभ " अर्थात् सम्यक् ज्ञान दर्शन व दानाऽऽदिक धर्म की वृद्धि हो ऐसा चारण करते हैं ! परन्तु शाह एवं शाह के पूर्वजों को इतना लौकिक ज्ञान भी वहाँ कि वन्दना करने वालोंको आशीर्वाद देना चाहिए या उपदेश, इसका निर्णय कर सकें ?
कई श्रज्ञ लोग ऐसा भी कह उठते हैं कि साधुको गृहस्थों के घर में चुपचाप जाना चाहिये कि जैसा हो वैसा निर्वद्य आहार पानी मिल जाय, क्योंकि धर्मलाभादि कोई संकेत करके जाने में गृहस्थ दोष लगा देने की शंका रहती है ? यह कहना नीतिशास्त्र के अनभिज्ञोंका है। क्योंकि एक गृहस्थ दूसरों के नहीं पर अपने घर में जाता है उस वक्त भी कुछ संकेत करके जाता है क्योंकि घरमें स्त्रिये स्नान करतीहो या असावधान लज्जातज के बैठी हो तो
कर धर्मलाभ शब्द को ५००० वर्ष का प्राचीन बतलाया है तद्यथाः"धर्मलाभ” परन्तत्वं, वदन्त स्ते तथा स्वयम् । मार्जनीं धार्यमाणास्ते, वस्त्र खण्ड विनिर्मिताम् ॥ २६ ॥
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