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ऐ० नो० की ऐतिहासिकता सेवन कर नरक के अधिकारी बन रहे थे तब भी तो इन्हीं प्राचार्यों ने अपने आत्मिक चमत्कार बता कर उन नरकाभिमुख मनुष्यों को जैनधर्म में दीक्षित कर उन्हें तथा उनकी सन्तान को मोक्ष या स्वर्ग के अधिकारी बनाया था, प्रत्युपकार में शाह आज उन्हीं प्राचार्यों का ऐसे निंद्य शब्दों से प्रत्युपकार कर रहा है, क्या शाह की यही कृतज्ञता दृष्टि है ? यदि हाँ ! तो ऐसे कृतज्ञों को एक बार नहीं अनेकों वार सभ्य संसार की ओर से धन्यवाद (!) है ।
वस्तुतः जैनाचार्यों ने अपने ज्ञानोपदेश और आत्मिक चमत्कारों से केवल जैनसमाज का ही नहीं अपितु जैनेतर एवं सर्व संसार का हित साधन किया है, परन्तु कतघ्न और दृष्टि राग रोगी वा० मो० शाह को उपकार अपकार के रूप में ही नजर आता है । अरे शाह ! उन आचार्यों में ज्ञानोपदेश की शक्ति थी या नहीं और उन्होंने कोई उन्नति की, या नहीं ? इसकी वास्तविकता को तो जैन और जैनेतर सुज्ञ समाज भले प्रकार से जानता ही है, आपको उन्हें बताने की कोई जरूरत नहीं। पर हाँ ! आप के माने हुए उन आचार्य प्रवरों के ज्ञान और उपदेश का नमूना तो जरा आप को दिखाना था कि जिन्होंने सिवाय जैनों के पतन और जैनों पर कलङ्क कालिमा पोतने के और भी कोई संसार में आकर कार्य किया था ?
शाह ने ऐ० नो० पृष्ट १८ पर एक दुष्काल का वर्णन करते वक्त जैन साधुओं के हाथ में दंड रखने की प्रथा को और श्रावक के वन्दना करने के अनन्तर आचार्यश्री की ओर से दिये जाने वाले 'धर्मलाभ' नामक आशीर्वचन को उपहास का रूप दे उसके
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