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ऐ० नो० की ऐतिहासिकता
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उन्होंने स्वीकार कर लिया । तथा पूर्व में अज्ञता वश जो सामायिकादि क्रियाओं का बहिष्कार कर पाप सञ्चय किया था उसके मार्जनार्थ पश्चाताप और प्रायश्चित कर गोशाला की भाँति अपनी आत्मा को समझाया परन्तु पकड़ी हुई बात एकदम छूटनी मुश्किल हो जाती है फिर भी जैन यतियों और जैन मन्दिर के साथ उनकी जो मनोमालिन्यता थी वह समयाऽभाव के कारण दूर नहीं हो सकी क्योंकि वि० सं० १५३२ में तो लौंका-शाह का देहान्त ही हो गया पर जो लौंकाशाह की विद्यमानता में ही भाषादि तीनों मनुष्यों ने बिना गुरु स्वयं साधु वेश पहिन लिया था, लौंकाशाह के पश्चात् लौंकाशाह के नाम से ही अपना लौकामत फैलाना शुरु किया, इत्यादि
संक्षेप में लौंकाशाह का सच्चा और प्रमाणिक यही जीवन इति
हास है, और इस विषय में वि०सं० १५४३ के पं० लावण्य समय के वि०सं० १५४४ के उपाध्याय कमलसंयम के १५२७ तथा मुनीविका के एवं वि० सं० १५७८ के लौंकागच्छीय यति भानुचन्द तथा बाद यति केशवजी और स्थान० साधु जेठमल जी के लिखे ग्रंथ, इससे सहमत है । किन्तु आधुनिक वा० मो० शाह के लिखा हुआ लौंकाशाह के जीवन चरित्र में और पूर्वोक्त लेखकों के लेख - में बड़ा भारी अन्तर नजर आता है अतः यह स्वतः सिद्ध है कि शाह का लेख सारा का सारा उनकी खुद की कल्पना का ढाँचा है । शाह की लिखी समग्र दलोलों का हमने अपनी लौंकाशाह के जीवन पर ऐतिहासिक प्रकाश नाम की पुस्तक में सप्रमाण निराकरण किया है, तदर्थ अब उनका पुनः पिष्टपेषण करना उचित नहीं, जिन किन्हीं को आवश्यकता हो, उसे पढ़कर अपना निर्णय कर लें ।
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