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तसकर वृत्ति का नमूना
विचार प्रकट करते, उससे बचने का शाह को जरूर प्रश्रेय मिल गया है । इस बुद्धिमानी के कार्य से यह भी प्रकट भाषाऽन्तरकार समयज्ञ तथा व्यर्थ के हानिप्रद करना चाहते हैं ।
होता है कि झमेलों को दूर
इससे आगे चलकर पाठक शाह की निष्पक्ष पात वृत्ति का नमूना फिर देखें कि उन्होंने अपनी नोध के पृष्ठ ४७ से भगवान् महावीर के बाद जो श्राचार्य हुए, उनका जीवन इतिहास लिखने की जो उदारता दिखाई है, पर वह शाह के माने हुए ३२ सूत्रों से सिद्ध नहीं होती, और यदि यह मानें कि यह इतिहास इन्होंने ३२ सूत्रों से न ले कर अन्य जैनाचार्यों के निर्मित ग्रन्थों से लिया है तो, उनके अन्दर से कई एक प्रधान घटनाओं को निकाल देना यह कोई निष्पक्ष न्याय प्रियता का परिचय नहीं है । यह तो मात्र अति निंदनीय चोरी प्रक्रिया का उदाहरण है । योग्यता तो यह थी कि शाह को यदि जैनाचार्यों को लिखी वे सत्य घटनाएँ नापसन्द थीं तो उन्हें ज्यों की त्यों लिख फिर उन पर अपना स्वतंत्र नोट लगाना था, परन्तु ग्रंथकर्त्ता की मूल रचना को ही हड़प करना मानों एक सत्य साहित्य का खून करना है और ऐसा करना सर्व साधारसा तथा विशेष कर प्रभु की साक्षी से निष्पक्ष भाव से लिखने को प्रतिज्ञा करने वाले शाह के लिए तो लज्जा का ही कारण है । नीचे जरा नमूना देखलें: -
( १ ) आचार्य शय्यम्भव सूरि के इतिहास में यज्ञस्तम्भ के नीचे श्रीशान्तीनाथ की प्रतिमा थी और उसके दर्शन से ही आपने प्रतिबोध पाकर यज्ञ का कार्य छोड़ जैन धर्म की दीक्षा ली
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