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समाज में फिर से विरोध पैदा किया और गुजराती ऐ नों० का हिन्दी भाषान्तर छपवाकर, पूज्य जवाहिरलालजी म० के व्याख्यानों में वितीर्ण करना शुरू किया । न्यायतः उनका यह कर्त्तव्य था कि वे इस बात को ठीक समझते कि व्यर्थ के खण्डन मण्डन से उभयतः जैन जगत् का ही नाश करने वाली इस गुजराती पुस्तक की चर्चा जब २५ वर्षों से शान्ति होगई थी तो फिर इसका हिन्दी भाषान्तर क्या मतलब रख सकता है ? यही न कि जैनों में कोई हिन्दी का जानकार लेखक तो है ही नहीं जो इसको प्रत्युत्तर देगा, और ऐसा होने से अपना मतलब निकल जायगा परन्तु यह सममना केवल उनका भ्रम ही है । जहाँ जहरीले कीड़े मलेरिया फैलाने को उड़ते हैं वहाँ जगत् रक्षणार्थ कोई न कोई ऐसी हवा प्रवाहित हो ही जाती है जिससे उन कीड़ों का स्वयं इलाज हो जाता है ।
अस्तु ! उस पुस्तक के हिन्दी भाषान्तर के पढ़ने से भी यही विदित होता है कि इसके प्रकाशकों में शास्त्रीय और ऐतिहासिक ज्ञान के साथ सामयिक ज्ञान का भी पूरा अभाव है। उन्होंने ऐसा सोचा ही नहीं कि एक्य बढ़ाने के इस जमाने में क्लेशवर्धक साहित्य वितरण करने से हमारी हँसी होगी या प्रशंसा ? इससे लाभ होगा या हानि ? | यद्यपि यह सबकुछ है किन्तु फिर भी निःसार पुस्तकों का प्रत्युत्तर देने में न तो मेरी रुचि है और न मेरे पास इतना समय ही है । पर कई एक भद्रिक सज्जनों ने मुझे हद से ज्यादा कहा सुना तो मैंने उन भद्रिक जीवों के भ्रम निवारणार्थं सच्ची बातें जाहिर करने को कुछ समय निकाल नोंध का प्रत्युत्तर लिखने में हाथ डाला है ।
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