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द्रव्य क्षेत्रन काल जि भाव, तेह ऊपरि छइ खरउ अभाव, मूलोत्तर गुण जे छई धणा, वे लोप्या जिनशासन तणा. ३० निहवि आगर बोल्या बोल, आ तो सिवहुं माहि निटोल, निन्हव संगति जे नर करई, काल अनंत संसारि जि फिरई. ३१ इम जाणी संगति मत करउ, आपणपूं आपिहि सम धरउ, ए बत्रीसी लूंका तणी, साधु शिरोमणि वीकडं भणी. - इति असूत्र निराकरण बत्रीशी समाप्ता. छ. श्री. पत्र १ पं. १५ गोकुळभाई नानजीनो संग्रह राजकोट में यह प्रति विद्यमान है ।
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- इसकी नकल जैन युग मासिक सं. १९८५ अंक १-२-३ पृष्ट ९९ में श्री मो० द० देसाइद्वारा मुद्रित हो चूकी हैं ।
* मुनि वीका ने इस बत्तीसी में अपना समय नहीं लिखा हैं पर आपकी अन्य कृतियों (देववन्दन स्तव ) में वि. सं. १९२७ का उल्लेख किया हैं अतएव इस समय के आसपाश यह बत्तीसी बनाई होगा और उससभय लोकाशाह जैनागम जैनश्रमण सामायिक पौसह प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान दान और देवपूजा नहीं मानता होगा उनके प्रतिकार में आपने यह बत्तीसी बनाइ होगा ।
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