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जैन साधुओं का आ. व्य.
जब एक चारित्र का ही आपस में यह हाल है तब यथाख्यात चारित्र की अपेक्षा तो छेदोपस्थापनीय चारित्र अनन्त गुण हीन है ही । पर यह नहीं कहा जाता कि इससे छेदोपस्थापनीय को चारित्र हो नहीं समझा जाय ।
इस समय के साधुओं में प्रायः छेदोपस्थापनीय चारित्र और बकुरा निर्मन्थ ही विशेष पाये जाते हैं, जिनका स्वभाव मूलगुण उत्तरगुण प्रति सेवी या अप्रति सेवी है। __ अध्यवसायों को उत्कृष्ट तथा स्थिर भाव से रखने में जैसे चारित्र मोहनीय का तो क्षयोपशम है ही, पर साथ में शरीर के संठनन भी हैं। ज्यों ज्यों संहनन की मन्दता है, त्यों त्यों अध्यवसायों की भी अस्थिरता है। भगवान् महावीर के समय में भी छेदोपस्थापनीय चारित्र था। आज भी छेदोपस्थापनीय चारित्र है। और भविष्य में पंचम श्रारा के अन्त तक भी छेदोपस्थापनीय चारित्र रहेगा । परन्तु भगवान् महावीर के समय के संहनन अाज के संहनन और पंचम पारा के अन्त के संहनन में तारतम्य अवश्य रहेगा। इस कारण एक एक संयम के असंख्य २ स्थान और अनन्त २ गुण हानि वृद्धि शास्त्रकारों ने बतलाई है। अतः एक साधु के चारित्र पर्यव हीन देख, दूसरे साधु को उसकी निंदा न कर प्रिय वचनों से सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। यदि प्रयत्न करने पर भी उस पर असर न हो तो आप को अपनी आत्मा का संयम रखना जरूरी है । पूर्वाचार्य इन बातों के पूर्ण जानकर थे। उन्होंने चैत्यवास और शिथिलाचार के समय उनको सुधारने का प्रयत्न किया; परन्तु उनको एक किनारे कर अपना पक्ष दुर्बल करना नहीं चाहा ।
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