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प्रकरण चौबीसवाँ
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अन्त होता ही है ! पर पाक बनाने वाले जब भट्टियों के अंदर नीलण फूलण वाले छाँणे (कण्डे) और लकड़िएं जलाते हैं, तब उनके अन्दर रहे हुए जीवों का भी परमकल्याण ( 1 ) हो जाता है ! फिर तुम्हें क्या अधिकार है ? कि आप स्वयं इतनी हिंसा करते हुए भी जब श्रावक गण भगवान् के गले में एकाध पुष्पों की माला पहिनावें तब उसको हिंसा हिंसा शब्दों से चिल्ला हमें दोषी बताते हो | क्या तीर्थंकर के समोशरण में पंचवर्णी फूलों की ढेर न होती थी ? तुम्हारे यहाँ भी सभाओं में सभापतियों के गलों को चोसरों ( पुष्पहारों ) से ढक देते हैं तथा रात में प्रकाशार्थ गैस बत्तीयों को जला लाखों पतंगों का होम किया करते हैं । क्या यह पाप नहीं है ? । फिर किस मुँह से कहते हो कि हम धर्मात्मा और तुम पापी हो ! एवं भगवान् को स्नान कराने के लिए खर्च किए हुये एक कलश जल से भट याग बबूला होकर हम को हिंसा-समर्थक साबित करते हो । जरा तो शरमाओ ! अपने घर के कुकृत्यों को तो पहिले सुधारो ! फिर हमें कहो ! अन्यथा आप लोगों पर भी वही उक्ति चरि तार्थ होगी जो हिन्दी साहित्य सम्राट् एक महात्मा ने कही है, यथाः
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" पर उपदेश कुशल बहुतेरे, इत्यादि ।"
अस्तु ! किसी भी समुदाय में सब मनुष्य उपयोग वाले नहीं होते हैं जैसे पूज्यों की भक्ति करने में अनेक आदमियों की त्रुटिएँ रह जाती हैं इतना ही क्यों पर मूल्य की अभक्ष मिठाई, आलू का शाक भुजिया खाकर दया पालने वालों और सामायिक पौसह करने वालों में भी उपयोग की शून्यता कम दिखाई नहीं
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