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तिहां थापना ठणहारी तणी, छ आवश्यक करवा भणी, उभय काल पडिकमणुं सही, बोलिउं छे शुभ ध्यानिइं रही. ३३ पांच समिति तव हिअडइ धरे, त्रिणि गुपति सरिसी आदरे, इम छ आवश्यक उच्चार, करि भविअण मम भूलि गमार. ३४ भगवइ अंग अने ठाणांग, तिहां में दीठा अक्षर चंग,
आवश्यकि बोल्या पचखाण, दसे प्रकारे जाणे जाण. ३५ कुमति बोले कूडो मर्म, जिनपूजा करतां नहीं धर्म, पूजा करतां हिंसा हवइ, एहवी वात अनाहत लवइ. ३६ श्री आवश्यक अति अभिराम, जिहां चउविसत्थानुं ठाम, श्रावक पूजाने अधिकारि, ते गाथा तुं हीइ विचारि. ३७ पूजा करतां हुइ व्यापार, टले पाप जिम कूप प्रकार, कूप खणंतां कादव थाइ, कचरे लागे शिर खरडाइ. धन० ३८ निर्मल नीरि भरिउ ते जिसिंई, विमल देह त्रस भाजइ तिसिई, घणा जीव पामे संतोष, त्रिषा रूप नासे मनि रोष. ३९ कूप तणे दृष्टांते कही, द्रव्य पूजा श्रावकने सही, यति श्रावक मारग नही एक, अंग उपासकमांहि विवेक. ४०
१ स्थापनाचार्य और प्रतिक्रमण भी लौंकाशाह नही मानता था तब ही तो पण्डितजी को सूत्रों के प्रमाण देकर इस बात को सिद्ध करनी पड़ी हैं । २ लौंकाशाह प्रत्याख्यान भी नही मानता था कि भगवतीसूत्रादि के प्रमाण देने की आवश्यकता हुई हैं । ३ पूजा के बारा में तो प्रसिद्ध ही हैं ।
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