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प्रकरण पचीसवाँ
२०८
गयजी मूलचन्दजी,वृद्धिचन्दजी,आत्मारामजी,दादा शांतिविजयजी रत्नविजयजी अजीतसागरजी चारित्रविजयजी ( कच्छी) पद्मविजयजी आदि सैकड़ों स्थानकवासी साधु ढूंढिया धर्म का त्याग कर शुद्ध जैनधर्म में (संवेगपक्षीय समुदाय में) दीक्षित हुये । इतना ही नहीं पर इस ग्रन्थ का लेखक और आपके गुरुवर्य एवं
आपके कइ शिष्य भी इसी पंथ का पांथिक है अगर लौंका गच्छ और स्थानकमार्गियों से जो साधु निकल कर संवेगी पक्ष में आये हैं जिनों की नामावली लिखी जाय तो एक वृहद् ग्रन्थ बन जाता है पर ४५० वर्षों का इतिहास में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता है कि कोई भी संवेग पक्षीय साधु या यति, ढूंढिया हुआ है यह जैन संवेग पक्षीय समुदाय की सत्यता का उज्वल वादयुक्त उदाहरण है।
अन्त में मैं यह स्पष्ट जाहिर कर देना समुचित समझता हूँ कि " श्रीमान् लौकाशाह के जीवन पर ऐतिहासिक प्रकाश" लिखने में न तो लौंकाशाह प्रति मेरा किंचित् द्वेष है न किसी का दिल दुःखाने की इच्छा ही है पर इस कार्य में श्रीमान् स्वामि सन्तबालजी ने “ श्रीमान् धर्मप्राण लौंकाशाह " नाम की लेखमाल लिख मेरी आत्मा में शक्ति प्रेरणा की तदर्थ मैं स्वामि संतबालजी का विशेष उपकार मानता हुश्रा इतना ही कहूँगा कि इस किताब के लिखने में जो कारण हैं तो सब से पहिले श्राप श्रीमान् ही हैं बस इतना कह कर मैं मेरी लेखनी को विश्रांति देता हूँ।
॥ ॐ शान्ति ३॥
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