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हिंसा अहिंसा की समा० विशुद्ध होने से उसके अशुभ कर्म नहीं बँधते हैं:-जैसे गुरुवन्दन, देवपूजा, प्रभावना, स्वामिवत्सलता, दीक्षा महोत्सव श्रादि धर्म कार्य करने में अशुभ कर्मों का बन्धन नहीं होता है ।
धर्म क्रिया की प्रवृत्ति में हिंसा बतला कर उसका विरोध करना यह एक शास्त्रों की अनभिज्ञता ही है । जरा निम्नोक्त शास्त्रकारों के वचनों पर खयाल करें।
न य किंचि वि पडिसितं, नाणुराणायं च जिणवरिंदहिं । मोत्तं मेहुणभावं, ण तं विणा रागदोसेहिं ॥
भावार्थ-एक मैथुन को वर्ज कर किसी में एकान्तत्व नहीं कहा है क्योंकि मैथुन की प्रवृति बिना राग द्वेष के हो नहीं सकती शेष कार्यों में शुभाशुभ दोनों प्रकार का अध्यवसाय होता है वास्ते किसी का न तो एकान्त निषेध है और न एकान्त स्वीकार है स्याद्वाद के रहस्य को जरा समझो ।
"अप्रमत्तस्य योगनिबन्धनप्राणव्यपरोपणस्य अहिंसात्वप्रतिपादनार्थ 'हिंसातो धर्म. इति वचनम्, राग-द्वेष-मोह-तृष्णादि निबन्धनस्य प्राणव्यपरोपणस्य दुःखसंवेदनीयफलनिवर्तकत्वेन हिंसात्वोपपत्तेः” इत्यादि।
"सन्मति सर्क श्री अभयदेवसूरि कृत टीका विभाग ५ पृष्ठ ७३."
भावार्थ-अप्रमादी के योगों से यदि हिंसा भी होती हो तो उसको अहिंसा ही समझना चाहिये । कारण राग द्वेष मोहादि संयुक्त प्रमादी के मनादि योग ही हिंसा का कारण होते हैं और इनसे असातावेदनीय श्रादि कर्म बंध होता है पर अप्रमादी के
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