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हिंसा अहिंसा की समा० ।
जे आसवा ते परिन्सवा, जे परिस्सवा ते भासवा; । ज अण्णासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा।
आचारांग सूत्र -४ भावार्थ--जो देखने में श्राश्रव ( कर्मबन्ध ) के स्थान है पर शुभ भावना होने से वे मंचर के ही स्थान कहाजा सकते हैं और जो देखने में संबर ( कर्मनिर्जरा) के स्थान है वह अशुभ भावना के कारण आश्रव के स्थान बन जोते हैं जैसे प्रश्नचंद्र राजर्षि संयमधारी होने पर भी अशुभ भावना से नरक के दलक एकत्र कर लिया था और ऐलापुत्र कुमर ने नाटक करते हुए भी शुभ भावना से केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था । "सुहजोग पडूच नो आयारंभा नो परारंभा नो तदुभयारंभा"
श्री भगवनी सूत्र श° १-२, भावार्थ-जहाँ शुभ योगों की प्रवृति है वहाँ न तो आत्मा रंभ है न परारम्भ है और न उभयारम्भ है अर्थात् शुभ भावना है वह संवर ही है।
जे जत्तिया य हेउ भवस्स ते चेव तत्तिया मुक्खे ।
सर्वएव ये त्रैलोक्योदरविवरवर्तिनो भावा रागद्वेषमोहात्मनां पुंसां संसारहेतवो भवन्ति, त एव रागादिरहितानां श्रद्धामतामज्ञानपरिहारण मोक्षहेतवो भवन्ति इति ।
'श्री ओधनियुक्ति सूत्र' भावार्थ-तीनों लोक में जो पदार्थ रागद्वेष मोह एवं अशुभ भावना वाला को राग (कम बन्धन) के कारण हैं वे ही पदार्थ राग
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