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प्रकरण बावीसा
मत निकाल गुरु के गेहरें अवर्णबाद' बोले । इन दोनों धर्मसिंह और लवजी का मिलाप सूरत में हुआ । पर सामायिक छः कोटी, आठ कोटि, के झगड़े के कारण ये एक-दूसरे को जिनाज्ञाभजक और मिथ्यात्वी कहने लगे । स्थानकमागियों के तीसरे गुरु धर्मदासजी थे। इन्होंने धर्मसिंह
और लवजी दोनों को ना पसन्द कर दिया। और आप बिना किसी गुरु के खुद ही वेष पहिन के साधु बन गए। क्या ऐसे स्वच्छन्दाचारी लौकाशाह के अनुयायी बन सकते हैं ? नहीं ! ____ यदि हम यही बात वा० मो० शाह के लेख से बता दें तो भाप को यह पता चल जायगा कि स्था० मत से जैन समाज और लौकागच्छ को कितना नुकसान हुआ है, और सांप्रत में भी हो रहा है। देखिये
श्रीमान् वा० मो० शाह
x x x इतना इतिहास देखने के बाद म पढ़ने वालों का ध्यान एक बात पर खींचना चाहता हूँ कि स्थानकवासी, वा साधु मार्गी, जैन धर्म का जब से पुनर्जन्म हुआ तब से यह धर्म अस्तित्व में आया और आज तक यह जोर शोर में था ही नहीं ! अरे ! इसके तो कुछ नियम भी नहीं थे।
१ श्री मणिलालजी अपनी वीर पट्टावली के पृष्ठ २०५ पर लिखते हैं कि लवजी खंभात में जाकर अपने गुह की निन्दा की तब लवजी के नाना धीरजी बोहरा ने खंभात के नवाब पर पत्र लिखा कि लवजी को नगर बाहर निकाल देना।
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