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प्रकरण बावीसा
१७४ (७) लौकाशाह के अनुयायी चोलपटे के दोनों पल्ले खुले रख कर उन्हें पहिनते हैं, परंतु स्थानकमार्गी दोनों पल्लों की सिलाई कर तहमल की तरह धारण करते हैं।।
(८) लौंकाशाह के अनुयायी चद्दर धारण करते हैं,पर छाती पर चद्दर की गाँठ नहीं लगाते, जैसे स्थानकमार्गी लोग लगाते हैं।
(९) लौंकाऽनुयायी श्रोघा प्रमाणोपेत रखते हैं, परंतु स्थान० प्रमाणऽतिरिक्त लम्बा श्रोघा रखते हैं।
(१०) लौकाऽनुयायी अपने नाम से स्थानक बना के फिर खुद उसमें नहीं रहते थे किंतु स्थानकमार्गी, साधुओं के नाम से स्थानक बनते हैं और उसमें वे स्वयं भी निवास करते हैं । यद्यपि कई एक लोगों ने अभी २ स्थानकों में ठहरना महा पाप समझ कर त्याग किया है, फिर भी उन्हीं स्थानकों पर पौषधशाला का नाम रख उनमें ठहर जाते हैं।
(११) लौकाऽनुयायी सचित्त के त्यागी थे, और शुद्ध गरम पानी पीते थे, कितु स्थानकमार्गी धोवण के पानी को और वह भी कालातिक्रमण में पीजाते हैं।
(१२) लौंकाऽऽनुयायी बाजारों में घूम कर हलवाइयों के यहां से धोवण लेकर बिचारी मूकगौओं के प्राड़ नहीं देते हैं, परंतु स्थानकमार्गी उल्टे इस कुकृत्य के करने को आप अपने को उत्कृष्ट समझते हैं।
* हलवाई अपने दुकान का बेसन आदि का धोषण, गौओं की कुंडियों में डालते हैं जिससे वे अपनी आत्मा को तृप्त करती हैं, परन्तु ये दयाऽवतार तो उन दीन गौभों को यह त्याज्य पानी भी नसीब होने नहीं देते।
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