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क्या० स्था० सौ. अनु० यतियों से अलग हुए और मूर्ति पूजा को छोड़ा कि ढूंढिया हुए x x x"
ऐति० नोंध० पृष्ठ १४२ x x x मेरी अल्प बुद्धि के अनुसार इस तरकीब से जैन धर्म का बड़ा भारी नुकशान हुआ, इन तीनों के तेरह सौ भेद हुए।
ऐति० नोंध० पृष्ठ १४१। ___ इस प्रकार स्थानकमागियों से हुए जैनधर्म के नुकसान को स्वीकार करते हुए पुनः मतमदान्धता से लौकाशाह के अनुयायियों पर किस कार रोष प्रकट करते हैं। जरा यह ध्यान लगा कर सुन लीजिये । वा० मो० शाह ने अपनी पक्षपात पूर्ण बुद्धि से अपनी ऐति. नो० में लिखा है कि:____ "लवजी...... इन्होंने साधुता स्वीकार साधुमार्गियों के अनुयायी बनाये इसी समय से चतुर्विध संघ की जगह पंचविध संघ हुआ अर्थात् साधु साध्वी श्रावक-श्राविका ऐसे संघ के चार अंगों में 'यति' यह अर्ध साधु का एक अंग और शामिल हुआ।"
ऐ० नों० पृष्ठ १०। लौकागच्छ वालों के लिए यह क्या कम अपमान की बात है कि उनकी गिनती चतुर्विध श्री संघ में न हो ? क्या यह स्थानकमार्गियों का लौकागच्छ के प्रति अन्तर्निहित द्वेष, या विद्रोह नहीं है ? । इस दशा में स्थानकमार्गी लौकाशाह के अनु. यायी कैसे हो सकते हैं। क्या लौकागच्छ के यति और श्री पूज्य तथा इनके अनुयायी इस बात को नहीं समझते होंगे ?
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