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प्रकरण एकवीसवाँ
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क्योंकि लौकाऽनुयायी नहीं स्थानकमार्गियों द्वारा किया हुआ मूर्तिपूजक समाज पर यह प्रथम आक्षेप ही नहीं है किन्तु इन लोगों ने आगे भी इनसे भी घृणित २ मिध्या दोषारोपण मूर्ति पूजक समाज पर किये हैं बतौर नमूना के आप देखिये : – “ श्रीमान् वाड़ी, मोती० शाह अपनी ऐतिहासिक नोंध पृष्ठ १३६ पर लिखते हैं किलवजी, भाणाजी, सुखाजी और सोमजी थंडिल गये थे। वहीँ से पीछे लौटते समय एक मुनि इनमें से पीछे रह गया, उन्हें कुछ यति मिले, ये यति रास्ता बतलाने के बहाने उस मुनि को अपने मन्दिर में ले गये और तलवार से मार कर मुनि के शव को वहीं गाड दिया ।" परन्तु स्वामि मणिलालजी ने अपनी पटावली के पृष्ट २०८ में लवजी का जीवन लिखते समय इस घटना को बिलकुल छोड़ दी शायद इसमें कुछ और कारण होगा ।
इन सफेद सज्जनों को यदि यह पूछा जाय कि यह समय तो हूँ ढियों और लौंकों के कटा कटी का था, और लौंकागच्छ की उस समय की पटावलिये यति और श्री पूज्यों के पास विद्यमान हैं । उसमें तो इस बात की गन्ध तक नहीं मिलती है । फिर ४०० वर्षों के बाद स्वच्छन्दी निरंकुश लेखकों ने यह बात कहाँ से गढ़ निकाली कि " मुनि को मार मन्दिर में गाड़ दिया ।" अरे ! सत्यवादियों (!)! तुम क्या इस बात का प्रमाण दोगे कि उस समय जैन यति तलवारें रखते थे, या मन्दिरों में तलवारें सुरक्षित रहती थी; जिससे कि वे ढूँढियों के साधु को मन्दिर में ले जा कर तलवार से मार देते। जिस प्रकार यह आक्षेप निराधार है उसी प्रकार लोकाशाह, लवजी, सोमजी ऋषिको जहर देने की बात भी निरा
* कारण देखो ऐतिहासिक नोंध की " ऐतिहासिकता" नामक किताब |
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