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क्या लौं० ३२ सूत्र लिखे थे
आपने तो मूल सूत्रों के मूल पाठों को भी बदल दिया। नमूनार्थ देखिये:--
सूत्र श्री राजप्रभीजी और जीवाभिगम सूत्र में देवताओं ने श्री जिन प्रतिमा का पूजन किया है, वहां धूप देने के विषय में मूल पाठ है कि:
" धूब दाउणं जिण पराणं " टीका:-धूपं दत्वा जिनवरेभ्यः । पार्श्वचन्द्र सूरिकृत टब्बा:-धूप दीधुं जिनराज ने । लौंकागछीयों की मान्यता, धूप दीधु जिनराजने,
इन-मूल पाठ, टीका, और टब्बा से यह स्पष्टहोता है कि जिन प्रतिमा को जिनराज समझ के तीन ज्ञान संयुक्त, सम्यग् दृष्टि देवता ने "धूप दिया है" यह बात मूर्तिपूजा विरोधी लौकामतानुयायी एवं स्थानकमार्गी ४५० वर्षों से बराबर मानते चले आरहे हैं। पर यह बात वर्तमान काल के ऋषिजी को न रुची, और आपने इस मूल पाठ को बदल करः
"धूवं दाउण पडिमाणं". यह पाठ बदल दिया और इसका अर्थ किया है। "धूप दिया प्रतिमा को" और प्रतिमा का अर्थ आपने जिनप्रतिमा न कर अन्य प्रतिमा अर्थात् कामदेव की प्रतिमा कर दिया है। आपके इस पाठ परिवर्तन का यह कारण हो सकता है कि "कुछ वर्षों में हमारा भी लेख जब प्राचीन हो जायगा, तब यह सर्वाश सत्य सिद्ध नहीं होगा तो नहीं सही, पर कई यज्ञजनों को शंकाशील तो जरूर करेगा। पर ऋषिजी यह अनर्थ करते समय इसे कतई भूल गए
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