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लौकाशाह का सिदान्त
तेहनई शिष्य मलीयो लखमसी, जेह नी बुद्धि हियोथी खसी । टालई जिन प्रतिमा नई मान, दया दया करी टालई दान । टालई विनय विवेक विचार, टालई सामायिक उच्चार । पडिकमणानेऊ टालई नाम, अमे पड़िया घणा तेई ग्राम ।
सिद्धान्त सार चौपाई जैन युग वर्ष ५ अं० १०
मुनि वीका कृत असूत्र निराकरण बत्तीसी "घर खूणई ते करई वखांण, छांडई पडिक्कमण पचखाण । छांडी पूजा छांडिउ दान, जिण पडिमा किधऊ अपमान ॥ पांचमी पाठमी पाखी नथी, मा छांडीनई माही इच्छी । विनय विवेक तिजिऊ आचार, चारित्रीयां नइ कहइ खाधार ॥
जैन युग मासिक वर्ष ५ अंक १-२-३ ये तीनों लेखक बड़े भारी विद्वान और शास्त्रों के मर्मज्ञ थे। लौकाशाह का देहान्त श्री संतबालजी के मताऽनुसार वि० सं० १५३२ और मुनि मणिलाल जी के कथनाऽनुसार वि० सं० १५४१ का है। और पं० लावण्य समयजी ने वि० सं० १५४३ में तथा उपाध्यायजी ने सं० १५४४ में उक्त चौपाईयों का निर्माण किया है। इस दशा में ये तीनों उद्धरण लौकाशाह के सम कालिन और ऐतिहासिक सत्य संयुक्त सिद्ध होते हैं । इन से लौकाशाह की मान्यता तथा उनके सिद्धान्त का निर्णय हो जाता है। लौकाशाह सामा. पौषह प्रति० प्रत्या० दान और देवपूजा को ही इन्कार नहीं करता था किन्तु वह तो शौचाचार के भी
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