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छोकाशाह और मूर्तिपूजा
पड़ा ।
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साथ हो अपना यह मत भी प्रकट करना पड़ा कि जैन मूर्तियों की स्थापना भगवान् महावीर के बाद दूसरी शताब्दी में सुविहित आचार्यों ने की। और उसका परिणाम भी अच्छा श्रया अर्थात् जैनमूर्तियों की स्थापना कर जैनाचार्यों ने जैनसमाज पर उपकार किया । यदि स्वामीजी एक कदम और आगे बढ़ जाते तो करीबन ४५० वर्षों का मतभेद स्वयं नष्ट हो जाता और दोनों समुदायें एक होकर शासन सेवा करने में भाग्यशाली बन जाती । खैर ! इस सत्यप्रियता के लिये आपका स्वागत करना हम हमारा कर्त्तव्य समझते हैं ।
परन्तु इसमें एक प्रश्न पैदा होता है कि आपने यह किस 'आधार पर लिखा है कि जैनों में मूर्ति का मानना महावीर निर्वाण के बाद दूसरी शताब्दी से प्रारम्भ हुआ और सुविहित आचार्यों ने इस प्रवृति से जैन समाज पर महान् उपकार किया इत्यादि ।
आपने इसके लिए न तो कोई प्रमाण बतलाया है और न यह बात किसी प्राचीन प्रन्थ व शिलालेख में मिलती भी है। यदि महाराज खारवेल के शिलालेख या, हस्तीगुफा की प्राचीन मूर्तियां, मथुरा के कंकाली टीलों की प्राचीन जैन मूर्तियों के शिलालेखों, अमेरिका के सिद्धचक यंत्र आस्ट्रेलिया की महावीर मूर्ति, मंगोलिया प्रान्त के जैन मन्दिर के ध्वंश विशेषादि प्राचीन इतिहास साधनों पर ही कल्पना की हो तो अभी तक आप का अभ्यास अपर्याप्त है। क्योंकि पूर्वोक प्रमाणों से तो भगवान् महावीर के पूर्व भी जैनों में मूर्तिपूजा प्रचलित होना सिद्ध होता हो । और इस बात को मानने में श्राप
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