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प्रकरण पन्द्रहवाँ
१२२ थयेल छै भने जसरीपण नथी" जैन ज्योति ता० १८-७-३६ पृष्ट १७२ राजपाल मगनलाल बोहरानो लेख।" ___इत्यादि लौकागच्छीय और स्थानकमार्गी विद्वानों का एक ही मत है कि डोरा डाल दिन भर मुँह पर मुंहपत्ती बान्धने की प्रवृति लोकाशाह से नहीं पर स्वामि लवजी ( वि० सं० १७०८) से प्रचलित हुई है और लौंकागच्छीय श्रीपूज्य यति वर्ग और आप के उपासक गृहस्थ मुँह बान्धने का सख्त विरोध करते हैं इतना होने पर भी समझ में नहीं आता है कि स्वामी अमोलषर्षिजी ने क्यों घसीठ मारा है कि लौंकाशाह ने मुंह पर मुंहपत्तो बान्ध कर दीक्षा ली थी ? लोकाशाह की दीक्षा के विषय में आगे चल कर हम प्रकरण अठारवाँ में विस्तृत प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध कर बतलावेंगे कि लौंकाशाह की यति दीक्षा बतलाना बिलकुल मिथ्या कल्पना ही है। जब लौंकाशाह की दीक्षा ही कल्पित है तो मुँह बान्धना तो स्वतः मिथ्या ठहरता है । यदि प्रामण्य लोगों को भ्रम में डाल अपनी जाल में फंसाने के लिये ही ऋषीजी ने यह प्रपंच जाल बना रखी हो तो यह बड़ी भारी भूल है । कारण अब ज्ञान मानूं को किरणों का प्रकाश गामडों की भद्रिक जनता पर भी पड़ने लग गया है दिन भर मुंह बान्धने से वे लोग नफरत भी करने लग गये हैं यही कारण है कि इस मुँह बान्धी समाज से सैकड़ों विद्वान् साधु मिथ्या डोरा का त्याग कर सनातन जैन धर्म का शरण लिया है वे भी साधारण नहीं पर स्वामी बुढेरायजी मूलचन्दजी, वृद्धिचंदजी, श्रआत्मारामजी, विशनचंदजी, रत्नचंदजी, और हाल ही में कानजी स्वामी, त्रिलोकचंदजी, गुलाबचनजी वगैरह विद्वान् स्थानक
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