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प्रकरण सत्रहवाँ .
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(१) वि० सं० १५७८ की चौपाई में इस बात की गंध तक भी नहीं है कि लौकाशाह के पास चार संघ या लखमसी आया था ।
( २ ) वि० सं० १६३६ के लौकाशाह के जीवन वृत्त में इस बात का जिक्र तक भी नहीं है ।
(३) वि० सं १८६५ के स्था० साधु जेठमलजी ने समकितसार में लोकाशाह की जीवन संबन्धी चौपाइयें लिखी हैं । उनमें इन बातों का इशारा तक भी नहीं किया है ।
( ४ ) वि० सं० १९७७ में स्था० साधु श्रमोल खर्षिजी ने शास्त्रोंद्वारा मीमांसा नामक पुस्तक में इस बात का उल्लेख तक भी नहीं किया ।
(५) वि० सं० १९९२ में स्था० साधु मणिलालजी ने अपनी प्रभुवीर पटावली में भी कहीं पर ऐसा नहीं लिखा है कि Marशाह ने गृहस्थावस्था में किसी को उपदेश दिया था। स्वामीजी ने लोकाशाह को यति दीक्षा दिलवा कर लखमसी और संघों की घटना यति लोकाशाह के साथ जोड़ दी क्योंकि ऐसी महत्व की बात को स्वामीजी क्यों जाने दे पर जब लौकाशाह की दीक्षा की मूल बात ही कल्पनीक सिद्ध हो चुकी है दीक्षा लेकर उपदेश करना तो स्वतः कल्पनीक सिद्ध होता है ।
अब सोचना चाहिए कि विक्रम की सोलहवीं शताब्दी से बीसवीं शताब्दी तक के प्रन्थों में जिन बातों का जिक्र भी नहीं है उन्हीं बातों को एकाध व्यक्ति पक्षपात प्रस्त हो, बिलकुल निरा
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