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क्या० ० दी० की थी !
लोग किस आधार पर लिखते हैं ? इस हालत में इन लेखकों की सत्यता का परिचय मिल सकता है पर "अन्धा उदर थोथा धान, जैसे गुरु वैसे यजमान" पूछे कौन ? तभी तो यह पोलमपोल चल रही है।
अब रहा लौकाशाह के मुंह पर मुंहपत्ती बांधने का विवाद, सो इसमें वा० मो० शाह, और संतत्रालजी ने तो लौकाशाह को गृहस्थ करार दे सहज ही में अपना पिण्ड छुड़ा लिया, और इन दोनों महानुभावों ने तो अपने २ प्रन्थों में मुख वस्त्रिका की चर्चा तक भी नहीं की है । परन्तु स्वामी मणिलालजी ने लौंकाशाह को यति सुमति विजयजी के पास दीक्षा दिलादी इसमें लौंकाशाह का मुँहपत्ती हाथ में रखना स्वयं सिद्ध हो गया, पर यह बात अमोल खर्षिजी को कब पसन्द आती, उन्होंने लिख दिया कि लौकाशाह ने मुँह पर मुंहपत्ती बांध के दीक्षा ली थी। पर इस विषय में स्वामी मणिलालजी यदि यह प्रश्न करें कि लोकाशाह ने किस स्थान, किस काल, और किस के पास दीक्षा ली जब लौकाशाह मुखपत्ती बांध के ही दीक्षा ली थी तो यह बतलाना चाहिये कि लोकाशाह के अनुयायी साधु-यति श्रीपूज्य और गृहस्थ लोग सब के सब मुँहपत्ती हाथ में रखते हैं तो यह हाथ में रखने की प्रवृत्ति लौकाशाह के अनुयायियों में कब से प्रचलित हुई और लोकाशाह के अनुयायी यह क्यों कहते हैं कि यति लवजी धर्मसिंह ने मुँह पर मुँहपत्ती बांध कर तीर्थङ्करों और लौंकाशाह की आज्ञा का भंग किया अर्थात् कुलिंग धारण कर उत्सूत्र की रूपना करी, क्या ऋषिजी इसका उत्तर दे सकेंगे ? क्योंकि प्रत्युत्तर में श्रीअमोल खर्षिजी के पास कोई प्रमाण नहीं है ।
इसके
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