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प्रकरण बीसवाँ
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प्रमाण नहीं मिलता है । इसका कारण शायद यह हो सकता है कि कडु शाह ने तो केवल जैन यतियों से ही विरोध किया था क्योंकि वह जैनागम पञ्जाङ्गी और मन्दिर मूर्ति तथा जैन धर्म की सामायिकादि सब क्रियाएँ यथा विधि विधान मानता था । परन्तु काशाह ने तो अनार्य संस्कृति के असर के कारण जैन यतियों के साथ २ इन सब को भी मानने से कतई इन्कार कर दिया, इसी कारण अहमदाबाद के श्रीसंघ द्वारा लौंकाशाह का तिरस्कार हुआ, और उसे उपाश्रय से भी निकाल दिया गया, ऐसी दशा में लौंकाशाह के धर्म का पूर्ण प्रचार होना असंभव ही है और प्रमाणाभाव से यह बात सत्य भी विदित नहीं होती है । क्योंकि जब उसने धर्म के सभी अंग काट दिए तो, सर्वाङ्गहीन धर्म, हस्तपादादि रहित पिण्डाऽवशेष शरीर के समान किस को प्रिय हो सकता है, अतः उसके नये मत का प्रचार सर्वथा रुक सा ही गया ।
वर्तमान समय में कई एक लोग व्यापारार्थ भारत के अन्यान्य प्रान्तों में जा बसते हैं तो उनमें मूर्तिपूजक, स्थानक - मार्गी, तेरहपंथी आदि सब तरह के लोग रहते हैं । शायद इन्हीं बिखरी हुई प्रजा को भिन्न २ प्रान्तों में देखकर ही नई रोशनी के स्थानकमार्गी यह कल्पना करते हैं कि हमारे लौंकाशाह के अनुयायियों की संख्या लाखों तक पहुँच गई थी और वे भारत के चारों ओर ही बसते होंगे । परन्तु यह तो ऐतिहासिक ज्ञान की अनभिज्ञता का ही प्रदर्शन है । अन्यथा बुद्धिबल से भी तो कुछ विचारना चाहिये कि वास्तव में रहस्य क्या है । किन्तु जिन्हें सच, झूठ की कोई परवाह नहीं केवल अपनी झूठ मूठ
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