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क्या. लौं०८० किया था?
शाह रूपचन्द सुराणा को दीक्षा दी। वि० सं० १६३२ में लौंका साधु भावचन्दजी गोड़वाड़ में आए, और ताराचन्द कावड़िया की सहायता से, उन्होंने गौड़वाड़ में अपना प्रचार कार्य शुरू किया। अनन्तर मालवा, मेवाड़ आदि की ओर आगे बढ़े वहाँ भी जैन यतियों का विहार कार्य बहुत कम था। जैसे थली
आदि निर्जल प्रदेशों में, जैन यतियों तथा स्थानकमागियों का भ्रमण कम होने से स्वामी भीखमजी ने अपना प्रचार किया, और आज भी कर रहे हैं। वैसे ही इन लौका० साधुओं ने भी किया। क्योंकि भद्रिक जनता का मन हमेशा श्रेयार्थी हुआ करता है, उसको भलाई का भुलौवा देकर मुकाने वाला जिधर चाहे उधर को ही मुका देता है
"झुक तो जाती है जहां, कोई झुकाने वाला हो।" यही भाव प्रसिद्ध नीति विद् विष्णु शर्मा कहते हैं:
“यत् पाव तो वसति तद् परिवेष्टयन्ति"
अर्थात्-जिस प्रकार वेलें, स्त्रिये तथा राजा लोग, गुणी निगुणी का खयाल छोड उनके पास जो आता है उसे ही अपना सर्वस्व सौंप देते हैं तद्वत् प्रजा जन भी अपने विशेष परिचय वाले को अङ्गीकार करते हैं । इत्यादि __ खैर ! प्रकृत विवेचन का सारांश यही है कि लौकाशाह ने लीबड़ी और अहमदाबाद के अलावा अन्यत्र कहीं भी भ्रमण नहीं किया। क्योंकि इसके अन्यत्र भ्रमण करने के प्रमाणों का आज तक नितान्त अभाव ही हाथ लगा है । हाँ! यह हो सकता है कि हमारे स्थानकमार्गी भाई यदि "कूप मण्डूक वृत्या"
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