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क्या हौ. ध०प० दिया था!
धार लिखदे, यह उनकी भक्ति कही जायगी, या उनके द्वारा की हुई स्वर्गङ्गत आत्मा को हॉसी कही जायगी ?
खास बात तो यह है कि नौकाशाह न तो विद्वान् था और न उसने किन्हीं को उपदेश दिया था, तथा न अहमदाबाद में चार संघ ही पाए थे । स्वामी मणिलालजी प्रभुवीर पटावली में लिखते हैं कि लौकाशाह ने यतिदीक्षा लेकर अहमदाबाद में चतुमांस किया । वहाँ ४ संघ आए । अब सोचना यह कि प्रथम तो चतुर्मास में जैनों का संघ निकलता ही नहीं। दूसरा अहमदाबाद कोई तीर्थ स्थान नहीं कि वहाँ चौमासा में चार संघ इकट्ठे हों। तीसरा पाटण सुरत आदि से सिद्धाचल गिरनार आदि जाने के मार्ग में अहमदाबाद आता ही नहीं है। फिर चौमासा में चारों संघों का अहमदाबाद में सम्मिलित होना कैसे सिद्ध हो सकता है ?
. वाड़ी. मोती० शाह तथा संतबालजी को तो येन केन प्रकारेण जैन यतियों की निंदा करनी है, इसीलिए मट यह कल्पना कर डाली कि यतियों ने कहा-धर्म कार्य में हिंसा नहीं गिनी जाती है, पर यह कहाँ तक सत्य है कारण सोलहवीं शताब्दी के तो यति लोग बड़े ही विद्वान् क्रिया पात्र एवं धर्मिष्ठ थे। वे ऐसे निर्दय वचन कह हो नहीं सकते हैं। यह तो चल चित्त स्थानकमागियों को स्थिर करने के लिए जैनियों की मात्र निंदा की गई है। यदि उपर्युक्त बात सत्य है तो वे प्रबल प्रमाण पेश करें। अन्यथा इन झूठी गप्पों में कोई सार तत्व नहीं है, यह बात तो हमारे स्थानकमार्गी विद्वान् स्वयं सोच सकते हैं कि हम इस विषय में जहाँ तक गहरे पहुँच सके वहाँ तक जोकर तो
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