________________
१२५
काज्ञाह और मुंहपत्ती
उपासक साधु साध्वियों श्रावक और श्राविकाओं की मूर्त्तियों जो हाथ में मुख वखिका की बनी हुई है इन मूर्तियों का स्थापित समय वीर निर्वाण ७० वर्षों से विक्रम की सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी का है। इसी प्रकार प्राचीन कल्पसूत्रादि की हस्तलिखित प्रतियों में भी जैनाचार्यों के हाथ में मुखपत्रिका वाने चित्र संख्याबन्ध मिल सक्ते हैं । पूर्वोक्त प्रमाण इस बात की घोषणा कर रहे हैं कि स्वामि लवजी के पूर्व जैनाचार्य - साधु और श्रावक मुँहपती हाथ में रखते थे और बोलते समय मुँह आगे रख यला पूर्वक निर्बंध भाषा बोलते थे । पर मुँहपर डोराडाल मुँहपत्ती बांधने का एक भी प्राचीन प्रमाण नहीं मिलता है। फिर तीर्थकरों के और प्राचीन समय के महान मुनिवरों के मुँहपर डोराडाल मुँहपत्ती वाले कल्पित चित्र बना के दुनियाँ में अपनी अज्ञता का परिचय करवा के हंसी के पात्र बनने के सिवाय और क्या अर्थ हो सकता है ? यदि उन महानुभावों से पूछा जाय कि आपने भगवान् ऋषभदेव बाहुबली ब्राह्मी, सुन्दरी, पांचपांडव, प्रश्नचन्द्रराजर्षि, आदि के मुँहपर डोरावाली मुँहपत्ती के चित्र करवाये यह किस आधार से करवाये हैं ? यदि कोई प्राचीन आधार नहीं तो इन कल्पित कलेवर की सभ्य समाज में कितनी कीमत हो सकती है ? कुछ भी नहीं ।
अन्त में इतना कहकर इस प्रकरण को समाप्त कर दूंगा कि मुँहपत्ती चर्चा के विषय में मैंने एक अलग पुस्तक लिखी है। जिसमें स्वशास्त्र और पर धर्म के शास्त्रों के अलावा ऐतिहासिक प्रमाण द्वारा युक्ति पुरःसर मुँहपत्ती हाथ में रखना प्रमाणित कर बतलाया है इसलिये यहाँ विशेष विस्तार नहीं किया है यहाँ तो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org