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प्रकरण पन्द्रहव
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बान्धने वाले स्थानकमार्गी एवं तेरहपन्थी अर्थात् अखिल जैन समाज की अटल मान्यता है कि भगवान् ऋषभदेव से तीर्थंकर महावीर सर्वज्ञावस्था में वस्त्र रहित ही रहते थे मुँहपत्ती और डोरा तो क्या पर सूत का एक तार तक भी नहीं रखते थे फिर समझ में नहीं आता है कि ऐसे मनचले, निरंकुश स्वच्छन्दी और जैन शास्त्रों के अनभिज्ञ लोग अपनी अज्ञानता का कलंक तीर्थंकर जैसे वीतरागदेवों पर लगाने को क्यों उतारू हुए हैं ? क्या कोई व्यक्ति यह बतलाने का साहस कर सकता है कि किसी शास्त्रीय या ऐतिहासिक प्रमाणों में स्वामि लवजी के पूर्व किसी जैन तीर्थंकर व श्रमण तथा श्रावक डोराडाल मुँह पर दिनभर मुँहपती बान्धी थी ? हाँ, सोमल नामक ब्राह्मण ने काष्ट की मुँह पती से मुँह बांधा पर उसको शास्त्रकारों ने मिध्यात्वी कहा है और देवता के समझाने पर वह समझ भी गया और उस काष्ठ मुँहपत्ती का त्याग भी कर दिया दूसरा जमाली क्षत्रीकुमार के दीक्षा समय नाई ( हजाम ) ने आठ पुड वाला कपड़ा से मुँह बांध कर जमाली की हजामत बनाई थी पर उसके पास नाई की रचानी थी, इसके सिवाय किसी में भी स्व व परमत में मुँहपर मुँहपती बांधने का अधिकार व रिवाज नहीं था ।
जब इनके खिलाफ धर्म क्रिया करते समय हाथ में मुँहपत्ती रखने का और बोलते समय मुँह के आगे मुँहपत्ती रखने के सैकड़ों प्रमाण मिल सकते हैं। जैसे ओसियों कुंभारियाजी आबू राणकपुर और कापरडाजी के मन्दिरों में जैनाचायों की मूर्तियों जो व्याख्यान देते हुए की बनी हुई हैं। जिन्होंके सन्मुख स्थापन जी और हाथ में मुँह वस्त्रिका है। इसी भाँति उन आचार्यों के
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