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प्रकरण सोलहवाँ
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मानलो कि जब किसी गाँव में किसी भी गच्छ के प्राचार्यों का परिभ्रमण बहुत असें तक न हुआ हो और वहाँ की जैन जनता यदि अज्ञानवश इनके परिभ्रमण को देख इनके चंगुल में फंस गई हो तो इससे क्या मत की सत्यता सिद्ध होती है ?। कदापि नहीं। यदि ऐसा हो, जब तो एक समय संसार का बड़ा भाग वाममार्ग का उपासक था तो क्या आप इसे भी सत्य समझेंगे ? यदि नहीं तो फिर सत्यता की सिद्धि में जन संख्या बताना केवल भ्रम है।
यदि आप मत चलाने के कारण ही यह कल्पना करते हो तो मिथ्या है । कारण मत तो साधारण पादमी भी चला सकता है। फिर बिचारे लौकाशाह को मृत आत्मा पर यह मिथ्या आक्षेप क्यों कर लाद रहे हो । एक जगह तो संतबालजी के मुँह से लौकाशाह खुद फरमाते हैं कि:-अरे "हूँ उपदेशक नथी पण एक साधारण लहीयो छु. अरे! मारे जेवो गरीब बाणिया नी शक्ति पण शुं ?” लौकाशाह के इन वचनों पर जरा ध्यान लगा कर विचार करें कि लौंकाशाह क्या कह रहा है ? और आप क्या लिख रहे हैं ? इन दोनों उदाहरणों में सत्यांश किसमें है ? अस्तु इसे ज्यादा नहीं बढ़ाकर अब हम लौकाशाह ने अपने जीवन में किन्हीं को धर्मोपदेश दिया वा नहीं, इसे सत्रहवें प्रकरण में लिखेंगे, इसका खुलासा पाठक वहाँ देखें।
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