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लोकाशाह की विद्वत्ता
ही नहीं पर विदुषी मीरांबाई के भी सैकड़ों पद गाये जाते हैं, फिर एक लौकाशाह की विद्वत्ता का ही परिचय कराने वाला थोड़ा सा भी साहित्य न मिले, इस हालत में यह कहना कोई अनुचित नहीं कि लौकाशाह को साधारण गुर्जर भाषा का भी पूरा ज्ञान नहीं था । यदि लौकाशाह थोड़ा भी बुद्धिमान् होता तो अनार्य संस्कृति का अनुकरण कर जैन धर्म के श्रंग भूत सामायिकादि क्रियाओं का विरोध नहीं करता ।
यदि अब कोई यह सवाल करे कि जब लौंकाशाह जरा भी विद्वान् नहीं था तो तब उनका मत कैसे चल गया, और लाखों मनुष्य उनके अनुयायी कैसे बन गए ? । उत्तर में यह लिखना है कि मत चल पड़ना कोई विद्वत्ता की बात नहीं, आप "भारतीय मतोत्पत्ति का इतिहास", उठा कर देखिये ! आपको ऐसे २ अनेक मत मिलेंगे जो नितान्त अनपढ़ों के तथा मूर्खाग्रगण्य शूद्रों तक के निकले हुए हैं । और जिन्हें लाखों मनुष्य मानते हैं। आप दूर क्यों जाते हैं ? आपके ही अंदर से देखिये । वि० सं० १८१५ में स्वामी भीखमजी ने तेरह पथ नामक मत निकाला। आप भीखमजी को कैसे विद्वान् समझते हैं। जैसे भीषमजी हैं वैसे ही लौंकाशाह होंगे। फिर मत चलाने में विद्वत्ता को कारण क्यों मानते हो । छः कोटि, आठ कोटि, जीव पंथी, अजीव पंथी लोगों का भी यही हाल है । आगे चल कर हम लौंकाशाह के अनुयायियों के बारे में भी लिखेंगे कि लोकाशाह के लाखों तो क्या पर हजारों भी अनुयायी उनकी मौजूदगी में नहीं थे । बाद में जब लौंकागच्छके यतियों ने मूर्त्ति पूजा को मान लिया तब उनकी संख्या बढी । अथवा यह भी
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