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लौकामाह की विद्वत्ता
इन पक्षपाती पुरुषों को नजर नहीं आता है-अथवा ये जान बूम के दृष्टि राग के कारण भूलकर धोखा खा रहे हैं।
लौकाशाह ने जिस समय अपना नया मत निकाला होगा उस समय खण्डन मण्डनाऽऽत्मक चर्चा जरूर हुई होगी, क्योंकि प्रमाण स्वरूप लौकाशाह के प्रतिपक्षियों द्वारा उस समय का लिखा हुश्रा साहित्य अाज हमें उपलब्ध हो रहा है। तब लौका शाह विद्वान् होने पर भी चुप चाप कैसे बैठ गया ? यह बात आश्चर्य की है। यदि कोई यह कहे कि लौकाशाह खंडन मॅडन की प्रवृत्ति को पसन्द नहीं करता था, इससे प्रत्युत्तर में उसने कुछ नहीं लिखा । सोच लो थोड़ी देर के लिए कि उसने इसी से कुछ नहीं लिखा, परन्तु इस खण्डन मण्डन के अलावा भी तो साहित्य क्षेत्र विस्तृत पड़ा था, तात्विक और दार्शनिक विषय तो लौकाशाह को अरुचिकर नहीं प्रतीत हुए होंगे, इन पर ही कुछ लिखना था। परन्तु उसने तो इन पर भी कुछ नहीं लिखा। यही क्यों लौकाशाह ने तो अपना सिद्धान्त बताने को भी दो कागज काले नहीं किए, और इसी से आज उनके अनुयायी पग २ पर ठोकरें खाते हैं । लौकाशाह या लवजी थोड़े भी लिखे पढ़े होते तो उनके अनुयायी इतने अज्ञानी नहीं रहते कि वे अपनी धर्म क्रिया के पाठ को भी शुद्ध उच्चारण न कर सके । तथा ४५० वर्षों में एक भी ऐसा विद्वान् न हो कि वह संस्कृत या प्राकृत भाषा में एकाध ग्रंथ रच कर साहित्य सेवा का सौभाग्य प्राप्त कर सके । एक विद्वान् को मत है कि "इस टूढिया पन्थ में आज तक भी कोई ऐसा विद्वान नहीं हुआ, जिसने न्याय, काव्य, छन्द या अलकारादि के विषय में कोई ग्रंथ रचा हो।"
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