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प्रकरण-सोलहवां
लौकाशाह की विद्वत्ता । केसी भी व्यक्ति की विद्वता, उसके खुद के निर्माण
- किए हुए साहित्य पर निर्भर है, या उसके समकालीन किसी अन्य विद्वान् ने अपने ग्रंथ में इसका प्रतिपादन किया हो कि हमारे समय में अमुक व्यक्ति विद्वान् था, तो हम उसे विद्वान् मान सकते हैं। परन्तु जो व्यक्ति आज से चार पांच शताब्दी पूर्व हो गुजरा है, और उसके विषय में साहित्य के अन्दर उसकी विद्वत्ता का वर्णन तो दर किनार रहा, उसका नामोल्लेख तक भी न मिले और उसे फिर सभ्य समाज सामान्य व्यक्ति ही नहीं किन्तु एक दम से विद्वान मानले यह असंभव है। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में समग्र जैनसमोज, विशेष कर गुर्जर प्रान्तीय जैन समाज में अनेकाऽनेक विद्वान् हो चुके हैं, और उनके बनाए हुए सैकड़ों ग्रंथ आज विद्यमान हैं। प्रमाण के लिए देखो गुर्जर काव्य संग्रह भाग १-२ जैन प्रन्थावली, जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास आदि । परन्तु १६ वीं शताब्दी के एक बड़े भारी, धर्म सुधारक, क्रान्तिकारक, विद्वान् की विद्वत्ता की प्राचीन साहित्य में गंध तक न मिले यह कितने आश्चर्य की बात है।
खास बात यह है कि वि० की उन्नीसवीं सदी तक तो क्या जैन और क्या लौका तथा स्थानकमार्गी सब की एक यही
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