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प्रकरण पन्द्रहवाँ
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हुए उन्होंने लौंकाशाह की जीवन घटनाओं को मंथित कर एक सिलोका बनाया जिसमें लौंकाशाह, देवपूजा और दान नहीं मानने का उल्लेख किया पर मुँहपत्ती डोराडाल मुँहपर दिन भर बन्धी रखने का जिक्र तक भी नहीं है। इन कागच्छीय विद्वान् यतीजी के प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक तो जैनों में किसी भी समुदाय वाले डोरा डाल दिन भर मुँहपर मुँहपत्ती नहीं बान्धते थे अर्थात् क्रिया करते समय हाथ में मुँहपती रखते थे और बोलते समय मुँह आगे मुँहपत्ती रख यत्ना पूर्वक निर्वद्य भाषा बोलते थे ।
लौकागच्छीय श्री पूज्यों यत्तियों का स्पष्ट कहना है कि विक्रम की अट्ठारवीं शताब्दी में यति लवजी को थायोग्य समझ कर श्री पूज्य वजरंगजी ने उसको गच्छ बहार कर दिया था बस उस लवजी ने मुँह पर मुँहपत्ती बांध कर अपना ढूंढिया नामक नया मत निकाला और इनका कुलिंग देख कर इतर लोग भी कहने लगे कि -
"धोवा धावा का पाणी पीवे, बात बणावे काली | मुंहपत्ती बांधियो धर्म हुवे तो, बान्धो ढूंढियो राली” ।
आगे चल कर वि० सं १८६५ में मुँहपर मुंहपत्ती बान्धने वाला स्वामी जेठमलजी हुए । आपने समकितसार नामक ग्रंथ में लौंकाशाह के विषय में प्राचीन चौपाइयों तथा कुछ आपकी ओर से भी लिखा है पर लौंकाशाह मुँहपत्ती मुँहपर बान्धने के विषय में जिक्र तक भी नहीं किया । श्रपके समय तो यही धारणा थी कि शास्त्रों में तो मुँहपत्ती बान्धनी नहीं कही है पर हमेशां उपयोग नहीं रहे और खुले मुँह बोला जाय इसलिये स्वामि
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