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प्रकरण ौदहवाँ
. ११२ साधुनों ने ही निकाला । वे तीर्थकरों का नाम क्यों रखे जब फासुक धर्म शाल उपाश्रय से लौंका मत वालों ने इन लोगों को निकाल दिया तब वे लोग अपने भक्तों को उपदेश देकर साधुओं के रहने के लिये स्थानक (मकान) बनाया और उसमें रहने के कारण वे स्थानक वासी कहलाये ! और जो लोग स्थानक को आधा कर्मी-दोषित बतलाकर उसमें ठहरने में महा पाप समझने वाले आज भी साधुमार्गी कहलाते हैं परन्तु स्थानक में ठैरने वालों की बाहुलता होने के कारण इस समाज का नाम प्रायः स्थानकवासी (वास्तव में स्थानक मार्गी कहना चाहिये) पड़ गयो है इतना परिचय करवा देने के पश्चात् यह बतला देना चाहता हूँ कि इन स्थानकमार्गीयों की मूर्तिपूजा विषय प्राचीन एवं अर्वाचीन क्या मान्यता हैं । जिसका संक्षेप से यहाँ परिचय करवा देना ठोक होगा ।
(१) आज से करीबन पचास वर्ष पूर्व स्थानकवासी समाज कीमान्यता थी कि भगवान् महावीर के बाद २७ पाट तक तो सुविहित आचार्य हुए ( श्रीनन्दीसूत्र की स्थविरावजी में सत्ताईस पाट अर्थात् देवढगणि क्षमाश्रमण तक की नामावली हैं और नन्दीसूत्र ३२ सूत्रों में से एक है )। उन लोगों के कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर से १००० वर्ष तक तो शुद्ध चारी पूर्वधर आचार्य हुए बाद शिथलाचारी आचार्यों ने अपने स्वार्थ के लिये मूर्तियों की स्थापना कर मूर्ति पूजा चलाई ।
(२) स्थानकवासी साधु हर्षचन्दजी ने अपनी “श्रीमदरायचन्द्र विचार निरिक्षण" नामक पुस्तक के पृष्ठ २२ में, पं० बेचरदास, रचित "जैन साहित्यमों विकार थवा थी हानि" नामक
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