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कोकाशाह और मूर्तिपूजा भी मूर्तिपूजा का यथार्थ, प्रतिपादन किया, हुमा साहित्य आज भी विद्यमान है।
परन्तु कलिकाल के क्रूर प्रभाव के कारण यह बात कुदरत को पसंद नहीं हुई उसने पुनः शान्त हुई जैन समाज में एक ऐसा उत्पात मचाया कि विक्रम की अठारवीं शताब्दी के प्रारंभ में लौकागच्छ के यति धर्मसिंहजी और लवजी को प्रेरणा की और उन्होंने फिर मत्तिं पूजा का विरोध उठाया। शायद् लौकागच्छ के श्रीपज्यों ने इसी कारण इन दोनों व्यक्तियों को गच्छ बाहर करना धोषीत कर दिया हो परन्तु कुदरत को इतने से ही संतोष नहीं हुआ फिर इन दोनों व्यक्तियों में भी ऐसा भेद डाला कि वे आपस में एक दूसरे को उत्सूत्र प्ररूपक निन्हव और मिथ्यात्वी बतलाने लगे-कारण धर्मसिंहजी ने श्रावक के सामायिक का पञ्चख्खांण पाठ कोटि से होने की मिथ्या कल्पना की तब स्वामि लवजी ने डोरा डाल दिन भर मुहपत्ती मुँहपर बान्धने की नयी कल्पना कर डाली जो जैन शास्त्र और प्रवृत्ति से बिलकुल विरुद्ध थी।
इन दोनों व्यक्तियों का चलाया हुश्रा नूतन मत का नाम ही ढूंढिया मत है। वह भी दो विभागों में विभाजित हो गया (१) आठ कोटि (२)छ कोटि इस के भी अनेक शाखा प्रतिशाखाऐ रूप टुकड़े हो गये उनमें से कई आज भी विद्यमान हैं और आपस में इतना ही विरोध है कि जो शरुआत में था। जब ढूंढिया नाम इन लोगों को खराब लगा तब वे लोग आप अपने को साधु मार्गी के नाम से ओलखाने लगे क्योंकि जैनियों का मार्ग तो तीर्थंकरों का चलाया हुआ हैं पर इंडिया का मार्ग
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