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प्रकरण तेरहवाँ
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विरुद्ध था । इस विषय में एक दिगम्बरीय शास्त्र का भी प्रमाण मिल सकता है ।
दि० प्रा० रत्ननन्दी वि० सं० १५२७ के बाद
" सुरेन्द्रार्यो जिनेन्द्रार्चे, तत्पूजांदातु मुत्ततम् । समुत्थाप्य स पापात्मा, प्रतीपोजिन सूत्रतः ॥ १६
भद्रबाहु चरित्र पृ० ९० उस समय के दिगम्बरी भी यही कह रहे है कि वि० सं० १५२७ में श्वेताम्बरों में एक लुंक नाम पापात्मा ने जिनेन्द्र की पूजा और दान को उत्थापा, अर्थात् वह इन्हें नहीं मानता था ।
इस प्रकार वे० दि० अनेक लेखकों ने अपने २ ग्रन्थ में लोकाशाह के विषय में उल्लेख किया है किन्तु मैं खास लौंकाशाह के अनुयायी यति केशवजी 'जो लौंकामत में एक विद्वानों की पक्ति में समझा जाता था' ने अपने ग्रन्थ में लौंकाशाह के सिद्धान्त के बारे में लिखा है कि:
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"आगम लखइ मनमां शंकई, आगम सांखि दान न दिसई | प्रतिमा पूजा न पडिकमणुं सामायिक पोसहर्पिण कम | १३ | श्रेणिक कुणिक राय प्रदेशी, तुंगिया श्रावक तत्वगवेषी । fort पडिक्कमणुं नवि किधु, किणइ परने दान न दिधुं ॥ १४ ॥ सामायिक पूजा छड़ ढोल, यति चलावड़ इणविध पोल । प्रतिमा पूजा बहुं संताप, तो हि करई धर्मनी थाप | १५ | लौ० -- यति केशवजी ० चतुविशति सिलोगो ।
( ता १८ जुलाई ३६ ईस्वी का मुम्बई समाचार से)
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