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प्रकरण तेरहवा
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में अपने दूषित विचारों को बदल दिया हो भौर बाद उनके अनुयायी वर्ग भी इसी सिद्धान्त पर पाए हों कि, सामायिक दिन में नियमित समय पर एक बार, पौषह पर्वदिन में, प्रतिक्रमण व्रतधारी श्रावक को, प्रत्याख्यान विना आगार, दान असंयमी को नहीं पर संयमीको देना, द्रव्य पूजा नहीं पर भाव पूजा करना, आगमों में ३२ सूत्रों को मानना, और समता भाव वाला हो वही साधु हो सके, इत्यादि मान्यताएँ बाद में घड़ निकाली हों तो आश्चर्य नहीं।
यहाँ पर एक यह सवाल भी उठता है कि लौकाशाह ने सामा. पौस. जैसी उत्तम प्रक्रियाओं का एकदम कैसे निषेध किया होगा? यह प्रश्न प्रधानतया विचारणीय है। मनुष्य जब किसी आवेश में आजाता है तब उसे अपने हिताऽहित का जरा भी विचार नहीं रहता। कोई राजा किसी पर जन्न प्रसन्न हो जाता है तो हर्ष के आवेश में आकर उसे राज तक देने को तैयार हो जाता है। बहादुर आदमी जब युद्ध में जाते हैं तब उन्हें वीरता का प्रावेश चढाया जाता है। वीरता के आवेश में आया हुआ वीर हँसते २ अपने अमूल्य प्राणों को अपने स्वामी के काज युद्ध में बलिवेदी पर चढा देता है। इसी प्रकार क्रोध के आवेश में आया हुआ व्यक्ति अनेक बुरे कामों को कर बैठता है। इसी से तो शास्त्रकारों ने क्रोध को जीतना महात्मा का मुख्य लक्षण माना है। लौकाशाह ने जब नया मत निकाला तब उस पर भी क्रोध का श्रावेश चढा हुआ था क्योंकि उपाश्रय में उसका श्रीसंघ द्वारा अपमान हुश्रा था, और इस अपमान, और अपमानजन्य क्रोधावेश के कारण उसकी कर्तव्य बुद्धि
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