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प्रकरण तेरहवाँ
होगया है तथा लोकाशाह का सचा सिद्धान्त क्या था ? हम साफ तौर से (जो इस विषम परिस्थिति को देख ) सकते हैं ।
फिर भी लोकाशाह के समकालीन कई एक विद्वानों ने काशाह के सिद्धान्तों की उस समय समालोचना की थी, इसका उल्लेख प्राचीन पुस्तक भण्डारों में मिलता है । तद्नुसार यह पता चलता है कि लौंकाशाह का सिद्धान्त था, सामायिक, पौषह, प्रति क्रमण, प्रत्याख्यान, दान एवं देव पूजा को नहीं मानना, यही नहीं किंतु उनसे यह भी ज्ञात हुआ है कि लौंकाशाह साधु और जैनागमों को भी नहीं मानता था इस विषय के कतिपय उहरण यहां दिये जाते हैं ।
तद्यथा:- -पं० लावण्य समयजी वि० सं० १५४३
"मति थोड़ी नई थोडु ज्ञान, महियल बडु न माने दान | पोसह पडिक्कमण पच्चरकाण, नहीं माने थे इस्यो जांण । जिन पूजा करवा मति टली, अष्टापद वहु तर्थ वली । नव माने प्रतिमा प्रासाद, ते कुमति सिऊ केहु वाद । लुंटक मत नु किसोउ विचार, जे पुण न करई शौचाचार ॥ शोच बिहुगाउ श्री सिद्धान्त, पढतां गुणतां दोष अनन्त ॥ सिद्धान्त चौपाई जैन-युग वर्ष ५ अंक १०
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यह भी
नहीं कह
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उपाध्याय कमल संयम वि० सं० १५४४ “संवत् पनर अठोतर उजागि, लुंको लहीऊ भूल नी खांण । साधु निन्दा ग्रह निशि करई, धर्म घड़ा बंध ढिलाऊ धरई ॥
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