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प्रकरण दशवाँ मंदिरमूर्ति, जैनाऽऽगम पञ्चाङ्गी सहित, तथा सामायिकादि मोक्ष साधिका जैन क्रियाओं को तो अपने मत में पूर्ण मान्य दिया।
"खल तोष" न्याय से यदि मान भी लिया जाय कि आचार शैथिल्य ही लौकाशाह के नये मत निर्माण में हेतु भूत था, तो समझना चाहिए कि लौंकाशाह को जैन सिद्धान्त, स्याद्वाद, उत्सर्गापवाद एवं सामान्य विशेष का ज्ञान ही नहीं था । और जिस हेतु को ले कर आप अपने पूर्वजों पर लान्छन लगाने का दुःस्साहस कर नये मत का प्रचार किया,वही हेतु इसके मत परभी लागू होगया। पूर्ववर्ती जो जैनशासन करीब २००० वर्षों के दीर्घ समय में अनेक उथल पुथल, और दुष्कलादिकों के कारणी भूत होने से व्यक्तिगत शिथिलाचारी साधुओं से दूषित होगया था, पर वही दोष इसके मत को पूरे सौ वर्ष होने के पहिले ही लग गया, जैसे “लौंकामत के साधुओं के लिए पालकियें रखना, छत्र चामर, पग वन्दन श्रादिका करना" इत्यादि । जब लौकामत भी दूषित होगया तो लौंकामत के यति जीवाजीको वि० सं० १६०८ में पुकार करके नया मत निकालना पड़ा, और जब जीवामत भी ढीला पड़ा तो वि० सं १७०८ में यति लवजी धर्मसिंहजी को फिर नया मत निकालना पड़ा और वह भी जब ढीला हुआ तव वि० सं० १८१५ में स्वामी भीषमजी ने पुनः नया मत निकाला। इन नव निर्मित मतों में यह खूबी थी कि लौकाशाह ने जब सामा० पोस० प्रति० प्रत्या० दान और देवपूजा को कतई अस्वीकार किया तो यति लवजी ने इनसे भी विशेष मुँह पर डोरा डाल दिन भर मुँह पत्ती बाँधना शुरु किया । भीखमजी ने इन सब से भी बढकर दया दान को ही प्रायः निर्मूल कर दिया। परन्तु इस
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