________________
प्रकरण ग्यारहवाँ
८६
रागनियों को ललकारते रहते हैं इसमें वायुकाय के जीवों की हिंसा होती है उसका दोष किसके शिर पर है ? क्या आप उन्हें मना नहीं कर सकते ? । तथा आप स्वयं भी, घंटे तक खुले मुँह व्याख्यान दे रहे हैं, तो इसमें क्या वायुकाय के जीव मारते नहीं होंगे ? जब कि एक बार खुले मुँह बोलने में भी असंख्य जीव मरते हैं तो फिर घंटे तक में तो कहना ही क्या ? | यदि आप खुद ही खुले मुँह बोलोगे तो पंचमधारा के पामर प्राणी तो निःशंकतया खुले मुँह ही बोलेंगे । और कोई कहेगा तो श्रापका उदाहरण देके अपना बचाव कर लेंगे, फिर दयाधर्मियों की तो सुनेगा ही कौन ? | यदि आपके पास वस्त्र का अभाव हो तो, लीजिए मैं सेवा में वस्त्र लादूं पर आप खुले मुँह तो कृपया व्याख्यान मत दो । यदि आप इतना कुछ कहने सुनने पर भी मुँहपत्ती न बान्धोगे तो अच्छे आप तीर्थकर हो पर मैं तो आपका व्याख्यान कभी नहीं सुनूंगा । कारण मेरी यह प्रतिज्ञा है कि जहाँ एक शब्द भी खुले मुँह बोला जाय वहाँ ठहरना भी अच्छा नहीं । आपको अपनी प्रतिमा बनाना भी पसंद है अतएव समवसरन में दक्षिण, पश्चिम और उत्तर के सिंहासन पर आपकी ही ३ प्रतिमा बनवा कर बैठाई जाती है । आप वहाँ मना तक नहीं करते हैं इसके विपरीत आप उन मूर्त्तियों की सेवा पूजा और दर्शन करने में भी धर्म बताते हैं। क्या आपको अपनी प्रतिमाएँ इष्ट हैं ? ऊफ् वीतराग होने पर भी आप संवेगी के पक्षमें जा बैठे ? अब हमारी दया की पुकार कौन सुने ?
इत्यादि अनेक तर्कनाएँ लौकाशाह के दिल में होंती, पर खुशी इसी बात की है कि लौकाशाह महावीर प्रभु के समय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org