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लौं० नयामत. कारण
उसके किनारे नये मत मताऽन्तर रूपी नयी उकेरियों की आवश्यकता नहीं है । यदि कभी उसमें समय के प्रभाव और आपत्तियों के कारण कोई विकार भी होगया हो तो उस विकार को सुधारने की जरूरत है। जैसे पूर्ववर्ती जमाने में अनेक धर्म धुरंधर शासन रक्षक आचार्यों ने अपनी बुलंद आवाज द्वारा पुकारें की और शासन को पुनः संस्कार द्वारा स्वच्छ स्फटिक के समान चमकीला बना दिया । परन्तु अगले किन्हीं आचार्यों ने भी यह दुःसाहस नहीं किया कि शासन में भेद डाल नये मत निकालें । जैसे लौकाशाह ने अपना लौंका मत नया निकाला । इसी प्रकार अन्यों ने भी जैसे:-कडुअाशाह, वीजाशाह, गुलाबशाह, और भीनमजी ने विना सोचे समझे नये नये मत निकाल, शासन को छिन्न भिन्न कर दिया । कोई भाई यदि यह भी सवाल करें कि जब लौकाशाह के पूर्व भी ८४ गच्छ हुए तो क्या ये उकेरिएँ नहीं थी ?-इसके उत्तर में यह लिखा जाता है कि ८४ गच्छ. स्थापकों ने नई उकेरियों नहीं खोदी थी, किन्तु वे तो विशाल नदी की शाखा प्रशाखारूप नहरें ही थी, जिनसे करके नदी भरी हुई और तूफान मचाती हुई मन्थर चाल से बहती हैं। और सर्व तो मुखी उपकारक होती है क्योंकि इन शाखाओं के अधिष्ठाताओं ने कहीं पर भी ऐसे शब्द का उच्चारण नहीं किया कि नदी का पानी खराब और हमारी शाखा का पानी अच्छा है। जैसा कि लौंकाशाह अपनी नन्हीं सी उकेरी खोद चट से कह उठे कि हम साधुओं को नहीं मानते, हम सूत्रों को नहीं मानते, यही नहीं किन्तु यहाँ तक कह दिया कि हम तो सामा. ‘किय पौषद, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दान, और मूर्तिपूजा जो
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