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लौं० और भस्मग्रह पैदा ही नहीं हुए। नहीं तो प्रभु महावीर को एक गोसाल के बजायदो गोसालों का अनुभव करना पड़ता । अस्तु ! लोकाशाह के अनुयायियों को चाहिए कि अब भी किसी जैन विद्वान् द्वारा भस्मग्रह का पूरा मतलब ठीक तौर से समझ लें ।
भस्मप्रह के कारण २००० वर्ष तक "श्रमण संघ" की उदय उदय पूजा न होगी," इसका अर्थ यह नहीं कि २००० वर्षों में श्रमण संघ की पूजा कतई होगी ही नहीं। पर इसका तो यह मतलब है कि, लगातार उदय २ पूजा न होकर बीच २ में कुछ काल यों ही बिना पूजा के चला जायगा, फिर पूर्ववत् पूजा होती रहेगी। देखिये भस्मग्रह के होते हुए भी २००० वर्षों के अन्दर जैनाचार्यों ने भारत के बाहर भी जैनधर्म का प्रचार कर. वोया। करीष १०० राजाओं को और लाखों करोड़ों जैनेतरों को जैनधर्म में दीक्षित किया, अनेक विषयों पर अपरिमित' ग्रन्थों की रचना की, कई राजसभाओं में शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की विजयपताका फहराई, हजारों लाखों मन्दिर मूर्तियों से मेदनी मण्डित करवा के जैनधर्म का उद्योत किया इत्यादि यह भी तो एक तरह से श्रमणपूजा ही थी। यह तो आप निश्चय समझ लीजिए कि जैनशासन का उद्योत श्रमण संघ ने ही किया है, और भविष्य में भी फिर करेगा। परन्तु आज पर्यन्त भी किसी गृहस्थ ने न तो कभी शासन का उदय किया है, और न भविष्य में भी करने की आशा है । हाँ! श्रमण संघ का साथ देकर कुछ शासनोन्नति कार्य करेतो कर सकता है।
प्रधान में-लौकाशाह न तो कुछ ज्ञानी था, और न कुछ उन्नति करने के काबिल ही था। उसने तो जो कुछ कार्य किया
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