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प्रकरण ग्यारहवा
वह आज आपके सामने प्रत्यक्ष रूप विद्यमान हैं। जैनधर्म में दारुण फूट और विद्वेष फैला कर, संगठन को छिन्नभिन्न कर श्रेयार्थीजन समाज को स्वेष्ट से भ्रष्ट कर, स्व, पर के पूर्ण अहित करने का श्रेय यदि किसी को है तो वह केवल लौकाशाह को है। क्योंकि ऐसा घृणित कार्य करना सो तो ऐसे महात्माओं (1) को ही फबता है, विशेष में अज्ञात लोकाशाह उन्नति का कार्य तो कर ही कैसे सकता था । जो हो ! जाते हुए भस्मग्रह ने अपने पूरे कुयश का सेहरा लौकाशाह श्रादि के कंठ में डाल गया।
लौकाशाह ने यह नये मत का बखेड़ा क्यों खड़ा किया ? इसका संक्षिप्त वर्णन यद्यपि हमने आगे के प्रकरणों में प्रसंगोपात्त कुछ किया है । किन्तु इसका मार्मिक विवेचन अब अगले प्रकरण में देखें कि, क्यों उसने अपनी डेढ चांवल की खिचड़ी अलग पकाई थी।
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