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लौं. जै० परिस्थिति
विषोक्त विपरीत वातावरण में भी जैनधर्म के स्तंभरूप जैनाचार्य आज तक भी प्राणपण से अपनी पूर्व मान्यता पर डटे हुए हैं, और भविष्य में भी डटे रहेंगे।
वस्तुतः इतिहास इस बात को पुष्ट करता है कि लोकाशाह के समय में जैन समाज की ऐसी परिस्थिति नहीं थी, जिससे किसी प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता हो । पर यह तो हमारी बदनसीबी का ही कारण था कि लौकाशाह का यतियों द्वारा अपमान हो, और वह उससे रुष्ट होकर नये मत का बीजारोपण करे। जैन समाज को इस फूट से महान् हानि पहुँची है । जो जैन जनता लौंकाशाह के समय सात करोड़ की संख्या में थी, वही आज लोकाशाह की फूट के कारण केवल १३ लाख की संख्या में आपहुँची है, और भविष्य में न जाने क्या होगा ? यह आज लिखने का विषय नहीं है। प्रकृत विवेचन में हमने यह साफ बता दिया है कि लौकाशाह के समय जैनियों की परिस्थिति क्या थी ? अब अगले प्रकरण में इसका विवेचन करेंगे कि लौकाशाह और भस्मग्रह का क्या सम्बन्ध है, पाठक धैर्य से उसको भी पढ़ें।
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