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लौं० जै० परिस्थिति
ये सब प्रतिष्ठित प्राचार्य हैं। इनका अस्तित्व, लौकाशाह के समय के शिलालेखों और प्रथ निर्माण प्रमाण से सिद्ध होता है। ___ यदि हमारे स्थानकमार्गी भाई यह कहने की भी धृष्टता करलें कि ये सब के सब आचार्य शिथिलाचारवान् थे, इसीसे लौकाशाह को अपना नया मत निकालना पड़ा ? तो सब से पहिले उन्हें अपने इस कथन की पुष्टि में प्रमाण देना होगा जिससे यह सिद्ध होजाय कि उस समय के सभी प्राचार्य आचार शिथिल थे । यदि हम थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि हाँ सभी आचार्य आचारहीन थे, पर आप यह तो नहीं कह सकेगें कि उस समय भगवान् महावीर प्रभु के शासन का ही विच्छेद होगया था जिससे कोई भी साधु रहा ही नहीं। यदि कुछ साधुओं में शिथिलता आगई थी तो लौंकाशाह को केवल उस शिथिलता का ही विरोध करना था, पर उन्होंने तो ऐसा करने के बजाय, यति संस्था सामायिक, पौषह, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, देव पूजा और दानादि का विरोध कर, एक दम सभी की नास्ति कर डाली । इससे तो स्पष्ट प्रमाणित होता है, कि लौकाशाह को इस विषय में कोई अन्य ही दर्द था, साधु-शैथिल्याचार का तो मात्र बहाना था। यदि यही कारण होता तो देवपूजा और दान आदि मोक्ष साधना की क्रिया का कदापि विरोध नहीं करता।
लौंकाशाह के ठीक समकालिन कडुआशाह नाम के जो व्यक्ति हुए, और जिन्होंने भी अपने नाम से पृथक् “कडुप्रापंथ" निकाला पर लौकाशाह की तरह नितान्त अज्ञता का नाटथ नहीं किया। कडुअाशाह को जैन साधुओं के साथ द्वेष होने से उसने यद्यपि साधु संस्था का बहिष्कार जरूर किया, परन्तु जैन
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