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लौं० जै० परिस्थिति
विक्रम की बारहवीं शताब्दी का है और उस समय के तो प्रमाण मिलते हैं कि उस समय चैत्यवासी थे, और उनके विरोध में जैनाचार्यों ने पुकार भी की थी, किन्तु लौकाशाह के समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में किसी ने भी यह पुकार नहीं की कि इस समय चैत्यवास या शिथिलाचार है, और इसके निवारणार्थ क्रिया उद्धार की जरूरत है । अतः इन पूर्वोक्त स्थानकमार्गी लेखकों के लेख का क्या अर्थ है, यह पाठक स्वयं विचार करें। __शायद ! जैसे आज कई लोग स्थानक मानने वालों को "स्थानकवासी" कहते हैं, वैसे ही यदि उस समय चैत्य ( मंदिर) मानने वालों को इन स्थानकवासी लेखकों ने "चैत्य वासी" समझा हो तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि उस समय चैत्य मानने वालों की संख्या सात करोड़ की थी, और उनके धर्मोपदेशक अनेक गच्छों में बड़े बड़े विद्वान्, क्रियापात्र उप्रविहारी और धर्म प्रभावक आचार्य विद्यमान थे, नमूना के तौर पर कतिपय विद्वान आचायों के नाम बतला कर इन मिथ्यावादियों के बन्द नेत्रों को हम खोल देते हैं:
१-तपागच्छाचार्य रत्नशेखरसरि । २-उपकेश गच्छाचार्य देवगुप्तसूरि । ३-ांचलगच्छाचार्य जयसिंहसरि । ४-आगमगच्छाचार्य हेमरत्नसूरि । ५-कोरंटगच्छाचार्य सार्वदेवसूरि । ६-खरतर गच्छाचार्य जिनचंद्रसुरि । ७-चैत्रगच्छाचार्य मलचंद्रसरि । ८-थारापद्रगच्छाचार्य शान्तिसरि ।
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