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प्रकरण-दशवां लौंकाशाह के समय जैन समाज को परिस्थिति
सी भी इतिहास के पाठक से बह बात छुपी हुई नहीं
- है, कि इस कलिकाल पंचम आरा और हुण्डा सर्पिणी आदि कारणों से समप्र भारत पर, एवं विशेषतः जैनशासन पर किन किन तरह से आपत्तियों और संकट के बादल मंडरा रहे थे, और किन किन कठिनाइयों ने आकर घेरा था, जिससे मध्योदय प्राप्त भी भारत का भाग्य भास्कर अस्त प्राय होगया था, जैसे:-लगातार कई वर्षों तक भीषण दुष्काल का पड़ना, जैन साधुओं को अपने कठिन नियमों के कारण नाना संकट सहना, पुष्पमित्र, मिहिरगुल, और सुन्दरपाण्डेय जैसे अधम नरेशों का जैन धर्म पर दारुण आक्रमण करना, शंकराचार्य और वसव जैसे अन्य मताऽवलम्बियों का तथा नीच यवनों का हमला होना, काल के कलुषित प्रभाव से साधुओं में श्राचार शैथिल्यता आना,एवं चैत्यवास श्रादि विकट समस्या में जैन धर्म का परिरक्षण करना कोई साधारण प्रश्न नहीं पर एक तरह से बड़े झमेले का प्रश्न था, फिर भी शासन की रक्षार्थ उस समय जैनाचार्यों ने अनेक लक्ष्य बिन्दुओं को दृष्टि में रखकर जिस प्रकार जैन शासन का रक्षणार्थ आत्मभोग दिया उसे सुनने मात्र से ही कलेजा कांप उठता है, नेत्रों से नितरां अश्रधारा बहने लगती है और रह २ करके हृदय से एक अन्तर्वेदना उठती है जो
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