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प्रकरण भाठव
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भी इससे बढ़कर विद्वत्ता प्राप्त नहीं हुई थी कि कापी टू कापी के सिवाय उनका अन्तर्निहित मर्म जानलें ।
यह एक प्रधान बात है कि जब हम किसी के जीवन वृत्त को लिखने बैठते हैं तो उनकी विद्वत्ता बताने को उनके रचित प्रन्थों का हवाला देकर उनकी प्रशंसा करते हैं। पर यह उदाहरण तो सर्व प्रथम लोकाशाह के विषय का हो देखने में आया है कि उनकी सुन्दर लिपि का प्रमाण दे उनको बजाय लिखारी के, पण्डित प्रमाणित किया जाता है । लिपि रचना एक प्रकार की कला है, अतः सुन्दर लिपिकार कलाविद् कहा जा सकता है विद्यावान् नहीं। यह बात दूसरी है कि यदि एक मनुष्य पूर्ण पंडित भी हों, सुन्दर लेखक भी हों तो उसे हम विद्वान् लहिया (नकलनवीज ) कह सकते हैं।
अब हम इसका विवेचन करते हैं कि लौंकाशाह के अक्षरों की सुन्दरता किस लिए बताई जाती है ? क्या इसका कारण यह तो नहीं है कि, लौंकाशाह का जन्म काठियावाड़ में हुआ और बाद में व्यापारार्थ गुजरात में आकर वास किया अत: उनकी गुर्जर लिपि तो स्वतः सुन्दर सिद्ध है । परन्तु जैन लिपि जो देव नागरी अक्षरों के अनुकूल है, और जैनों के तमाम श्रागम प्राकृत और संस्कृत भाषा में हैं, अतः इस देवनागरी लिपि का पृथक् अभ्यास करना, एक गुर्जर भाषा भाषी के लिए जरूर महत्व का परिचायक है । क्योंकि, पहिले जमाने में आज कल की भाँति पाठशालादिकों का सुचारु प्रबंध नहीं था, और न सर्वत्र सर्वविषयों के अभ्यास का अबाध प्रचार था, अतः लौंकाशाह का अन्य भाषा भाषी होकर भी देवनागरी लिपि में सुन्दर लिखना
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