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लौकाशाह का ज्ञानाभ्यास
तात्पर्य यह है कि लौंकाशाह तो एक सामान्य व्यक्ति, एवं मध्यम स्थिति का गृहस्थ था। न तो उसने कभी ३२ सूत्र लिखे
और न उसके वर्णनीय अक्षर ही थे । न वह विद्वान् था, और न उसने कहीं कभी किसी गुरु के पास रह कर विनय-भक्तियुक्त हो ज्ञानाऽभ्यास ही किया था। और न कोई प्राचीन पुस्तक, पटावली, व इतिहास इन बातों को सत्य सिद्ध करते हैं। ऐसी दशा में यह कैसे सिद्ध हो सकता है कि वह प्रगाढ विद्वान् और विख्यात लेखक था। यह बात तो एक साधारण मनुष्य भी जान सकता है कि, यदि लौकाशाह कुछ भी विद्वान होते और थोड़ा बहुत ही उन्हें जैनशास्त्रों का अभ्यास होता तो वे कभी भी सामायिक, पौषह, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दान, और देव पूजा का निषेध नहीं करते। यदि दृष्टिराग, और मतपक्ष में बेभान होकर ही उन्होंने ऐसा किया, यह कहा जाय, तो फिर तेरहपंथी लोग भीखमजी के लिए भी तो यही कहते हैं, उसे भी सत्य मानना चाहिए। यदि तेरह पंथियों का कहना सत्य नहीं मानते हों तो आपका (स्थानक मार्गियों का) कहना ही हम क्यों सत्य मानें। अर्थात् जैसा आपका कहना निःसार है, वैसा तेरह पंथियों का; क्योंकि तुम दोनों एक ही वृक्ष की तो दो शाखाएँ
स्थानकमार्गी साधु आज लौकाशाह को भले ही विद्वान, क्रांतिकारक, और सुधारक श्रादि मिथ्या विशेषणों से विभूषित करें, किन्तु कागजी घुड़ दौड़ में वे अब भी तेरहपंथियों की बराबरी नहीं कर सकते हैं। कारण तेरहपंथी तो अपने पूज्यजी को पूज्य परमेश्वर, तीर्थेश्वर, तीर्थनाथ, शासनाधीश, शासननाथ,
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