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प्रकरण नौवाँ
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यह युक्ति न तो वा. मो. शाह को सूमो और न संतबाल जी की स्मृति में आई। पर ऋषिजी ने यह नयी युक्ति गढ कर काशाह पर आते हुए चोरी के दोष का निवारण कर दिया । सच्ची भक्ति तो इसी का ही नाम है कि अपना दूसरा महाव्रत भले ही भाड़ में चला जाय, पर धर्म गुरू लौंकाशाह पर कोई कलङ्क न रहना चाहिए । फिर भी आपकी युक्ति में एक त्रुटि तो रह ही गई है । वह यह है कि वा. मो. शाह श्रौर संतवाल जी तो उस समय के यतियों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, और ऋषिजी उन्हें सरल स्वभावी तथा ज्ञान प्रचार के प्रेमी और लौंकाशाह के वंदनीय तथा पूजनीय मानते हैं । संत बालजी ने यतियों का लोकाशाह के घर आना लिखा है । और वा. मो. शाह, एवं ऋषिजी उल्टा लौंकाशाह को उपाश्रय में भेजते हैं । इससे तो संतबालजी का बड़ा भारी अपमान होता है । और जब हम स्था. साधु मणिलालजी के लेख को देखते हैं तब पूर्वोक्त सब लेखों पर पानी फिरता नजर आता है । क्योंकि वे अपनी प्रभुवीर पटावली में लिखते हैं कि "लोकाशाह का जन्म हटवाड़ा में हुआ, बाद वह अहमदाबाद गया । वहाँ बाद-शाह की नौकरी की तत्पश्चात् पाटण जाकर यति दीक्षाली इत्यादि यह बात स्वामीजी ने केवल कल्पना के किले पर ही नहीं खड़ी की है, किन्तु इसके लिए स्वामीजी को अनायास वि० सं० १६३६ के लिखे हुए लेख का सहारा मिला है । पर स्वामीजी ने इसमें न तो लौंकाशाह का उपाश्रय जाना लिखा है और न यतिजी का गोचरी निमित्त उसके घर जाना लिखा है तथा न शाह ने चोरी या साहूकारी से कैसे भी ३२ सूत्र या एकाध
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